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धर्म प्राणों से भी प्यारा है

भारतीय इतिहास में सिख गुरुओं के त्याग, तपस्या व बलिदान का एक महत्वपूर्ण अध्याय है । घटना उस काल की है जब भारत पर मुगल साम्राज्य था । औरंगजेब एक कट्टर मुसलमान था । इस्लाम स्वीकार कराने के लिए उसने हिन्दुओं को अनेक प्रकार के कष्ट दिये । वह सम्पूर्ण भारत को इस्लाम का अनुयायी बनाना चाहता था । अनेकों स्थानों पर मंदिरों को तोडकर मस्जिदें बनायी जा रही थीं । हिन्दुओं पर नाना प्रकार के कर लगाये गये । कोई भी हिन्दू शस्त्र धारण नहीं कर सकता था । घोडे पर सवारी करना भी हिन्दुओं के लिए वर्जित था । मुगल शासन भारतीय संस्कृति तथा धर्म को समाप्त कर देना चाहता था । गुरुगोविन्दसिंह जी के चार पुत्र थे- अजीत सिंह, जुझारसिंह, जोरावरसिंह और फतेहसिंह ।

एक बार गुरु गोविन्दसिंह जी आनंदपुर में थे । मुगलों ने पहाडी नरेशों की सहायता से किले को चारों ओर से घेर लिया । मुगल सेना अनेक प्रयत्नों के बाद भी किले पर विजय पाने में असफल रही । हताश होकर औरंगजेब ने गुरुजी को संदेश भेजा । औरंगजेब ने कुरान की शपथ लेकर कहा कि यदि गुरुगोविन्द सिंह आनंदपुर का किला छोडकर चले जाते हैं तो उनसे युद्ध नहीं किया जायेगा । गुरुजी को औरंगजेब के कथन पर विश्वास नहीं था । फिर भी सिखों से सलाहकर गुरु जी घोडे से सिखों (सिख-सैनिकों) के साथ बाहर निकले । बाहर निकलते ही मुगल सेना ने उन पर आक्रमण कर दिया । सरसा नदी के किनारे भयंकर युद्ध हुआ । सिख सैनिक बहुत कम संख्या में थे । फिर भी उन्होंने मुगलों से डटकर मुकाबला किया और मुगल-सेना के हजारों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया । गुरुजी युद्ध करते हुए चमकौर की ओर से बढने लगे । उस समय गुरुजी के दोनों बडे पुत्र अजीतसिंह तथा जुझारसिंह उनके साथ थे । दूसरे दिन मुगलों के साथ सिखों का भयंकर युद्ध हुआ । इस युद्ध में वीरता के साथ लडते हुए १८ वर्षीय अजीतसिंह और १५ वर्षीय जुझारसिंह वीरगति को प्राप्त हुए ।

आनंदपुर छोडते समय ही गुरुगोविन्द सिंह जी का परिवार बिखर गया था । गुरुजी के दोनों छोटे पुत्र जोरावरसिंह तथा फतेहसिंह अपनी दादी, माता गुजरी के साथ आनंदपुर छोडकर आगे बढे । जंगलों, पहाडों को पार करते हुए वे एक नगर में पहुँचे । वहाँ कम्मो नामक पानी ढोने वाले एक गरीब मजदूर ने गुरुपुत्रों व माता गुजरी की प्रेमपूर्वक सेवा की । उसी कस्बे में गंगू नामक एक ब्राम्हण, जो कि गुरु गोविन्दसिंह के पास २२ वर्षों तक रसोइए का काम करता था, किसी कार्यवश आया था । गंगू जो कि मुगलों से मिला था । धन के लालच में उसने गुरुमाता व बालकों से विश्वासघात किया । एक कमरे में बाहर से दरवाजा बंद कर उन्हें कैद कर लिया तथा मुगल सैनिकों को इसकी उसने सूचना दे दी । मुगलों ने तुरंत आकर गुरुमाता तथा गुरु पुत्रों को पकडकर कारावास में डाल दिया । कारावास में रातभर माता गुजरी बालकों को सिख गुरुओं के त्याग तथा बलिदान की कथाएं सुनाती रहीं । दोनों बालकों ने दादी को आश्वासन दिया कि वे अपने पिता के नाम को ऊँचा करेंगे और किसी भी कीमत पर अपना धर्म नहीं छोडेंगे ।
प्रात: ही सैनिक बच्चों को लेने आ पहुँचे । निर्भीक बालक तुरन्त खडे हो गये । दोनों बालकों ने दादी के चरण स्पर्श किये। दादी ने बालकों को सफलता का आशीर्वाद दिया। बालक मस्तक ऊँचा किये सीना तानकर सिपाहियों के साथ चल पडे । लोग बालकों की कोमलता तथा साहस को देखकर उनकी प्रशंसा करने लगे । गंगू आगे-आगे चल रहा था। अनेक स्त्रियां घरों से बाहर निकलकर गंगू को कोसने लगीं । बालकों के चेहरे पर एक विशेष प्रकार का तेज था, जो नगरवासियों को बरबस अपनी ओर सहज ही आकर्षित कर लेता था। बालक निर्भीकता से नवाब वजीर खान के दरबार में पहुँचे । दीवान के सामने बालकों ने सशक्त स्वर में जय घोष किया - जो बोले सो निहाल – सत श्री आकाल । वाहि गुरुजी का खालसा – वाहि गुरुजी की फतह ।।
दरबार में उपस्थित सभी लोग इन साहसी बालकों की ओर देखने लगे । बालकों के शरीर पर केसरी वस्त्र, पगडी तथा कृपाण सुन्दर दिख रही थी । उनका नन्हा वीरवेश तथा सुन्दर चमकता चेहरा देखकर नवाब वजीर खान ने चतुरता से कहा - ‘‘बच्चों तुम बहुत सुन्दर दिखाई दे रहे हो । हम तुम्हें नवाबों के बच्चों जैसा रखना चाहते हैं । शर्त यह है कि तुम अपना धर्म त्यागकर इस्लाम कबूलकर लो । तुम्हें हमारी शर्त मंजूर है ?”

दोनों बालक एक साथ बोल उठे – ‘हमें अपना धर्म प्राणों से भी प्यारा है । हम, उसे अंतिम सांस तक नहीं छोड सकते ।’
नवाब ने बालकों को फिर समझाना चाहा - ‘‘बच्चों अभी भी समय है, अपनी जिन्दगी बर्बाद मत करो । यदि तुम इस्लाम कबूल कर लोगे तो तुम्हें मुँह माँगा इनाम दिया जायेगा । हमारी शर्त मान लो और शाही जिंदगी बसर करो ।”

बालक निर्भयता से ऊँचे स्वर में बोले- ‘हम गुरुगोविन्दसिंह के पुत्र हैं । हमारे दादा गुरु तेगबहादुरजी धर्म रक्षा के लिए कुर्बान हो गये थे । हम उन्हीं के वंशज हैं । हम अपना धर्म कभी नहीं छोडेंगे । हमें अपना धर्म प्राणों से भी प्यारा है ।’
उसी समय दीवान सुच्चानन्द उठे और बालकों से इस प्रकार पूछने लगे । ‘अच्छा बच्चों, यह बताओ कि यदि तुम्हें छोड दिया जाये तो तुम क्या करोगे ?’
बालक जोरावरसिंह बोले -‘‘हम सैनिक एकत्र करेंगे और आपके अत्याचारों को समाप्त करने के लिए युद्ध करेंगे ।”
‘यदि तुम हार गये तो ?’ – दीवान ने कहा । ‘हार हमारे जीवन में नहीं है । हम सेना के साथ उस समय तक युद्ध करते रहेंगे । जब तक अत्याचार करने वाला शासन समाप्त नहीं हो जाता या हम युद्ध में वीरगति को प्राप्त नहीं हो जाते ।’ – जोरावरसिंह ने दृढता से उत्तर दिया, साहसपूर्ण उत्तर सुनकर नवाब वजीर खान बौखला गया । दूसरी ओर दरबार में उपस्थित सभी व्यक्ति बालकों की वीरता की सराहना करने लगे । नवाब ने क्रुद्ध होकर कहा ‘‘इन शैतानों को फौरन दीवार में चुनवा दिया जाये।”
दिल्ली के सरकारी जल्लाद शिशाल बेग तथा विशाल बेग उस समय दरबार में ही उपस्थित थे । दोनों बालकों को उनके हवाले कर दिया गया । कारीगरों ने बालकों को बीच में खडा कर दीवार बनानी आरम्भ कर दी । नगरवासी चारों ओर से उमड पडे । काजी पास ही में खडे थे । उन्होंने एक बार फिर बच्चों को इस्लाम स्वीकार करने को कहा।
बालकों ने फिर साहसपूर्ण उत्तर दिया – ‘‘हम इस्लाम स्वीकार नहीं कर सकते । संसार की कोई भी शक्ति हमें अपने धर्म से नहीं डिगा सकती ।”
दीवार शीघ्रता से ऊंची होती जा रही थी । नगरवासी नन्हें बालकों की वीरता देखकर आश्चर्य कर रहे थे । धीरे-धीरे दीवार बालकों के कान तक ऊंची हो गयी । बडे भाई जोरावरसिंह ने अंतिम बार अपने छोटे भाई फतेहसिंह की ओर देखा । जोरावर की आंखें भर आयीं । फतेहसिंह भाई की आंखों में आंसू देखकर विचलित हो उठा ।
‘‘क्यों वीरजी, आपकी आँखों में ये आंसू ? क्या आप बलिदान से डर रहे हैं ?”
बडे भाई जोरावरसिंह के हृदय में यह वाक्य तीर की तरह लगा । फिर भी वे खिलखिलाकर हँस दिये और फिर कहा ‘फतेह सिंह तू बहुत भोला है । मौत से मैं नहीं डरता बल्कि मौत मुझसे डरती है । इसी कारण तो वह पहले तेरी ओर बढ रही है । मुझे दुख केवल इस बात का है कि तू मेरे पश्चात संसार में आया और मुझसे पहले तुझे बलिदान होने का अवसर मिल रहा है । भाई मैं तो अपनी हार पर पछता रहा हूँ ।” बडे भाई के वीरतापूर्ण वचन सुनकर फतेहसिंह की चिंता जाती रही ।

दीवार तेजी से ऊँची होती जा रही थी । उधर सूर्य अस्त होने का समय भी समीप था । राजा-मिस्त्री जल्दी-जल्दी हाथ चलाने लगे । दोनों बालक आँख मूंदकर अपने आराध्य का स्मरण करने लगे । धीरे-धीरे दीवार बालकों की अपूर्व धर्मनिष्ठा को देखकर अपनी कायरता को कोसने लगी । अंत में दीवार ने उन महान वीर बालकों को अपने भीतर समा लिया । कुछ समय पश्चात दीवार गिरा दी गई । दोनों वीर बालक बेहोश हो चुके थे उस अत्याचारी शासन के आदेशानुसार उन बेहोश बालकों की हत्या कर दी गई । जब दोनों बालकों की हत्या हुई तब बालक जोरावरसिंह की आयु मात्र ७ वर्ष, ११ महीने तथा फतेह सिंह की आयु ५ वर्ष, १० महीने थी। विश्व के इतिहास में छोटे बालकों की इस प्रकार निर्दयतापूर्वक हत्या की कोई दूसरी मिसाल नहीं है। दूसरी ओर बालकों द्वारा दिखाया गया अपूर्व साहस संसार के किसी भी देश के इतिहास में नहीं मिलता । धन्य है गुरुगोविन्दसिंह, धन्य गुरुगद्दी परम्परा, धन्य माता गुजरी, धन्य गुरु पुत्र और धन्य है हमारी पुण्यधरा। हमारे भीतर भी ऐसी ही धर्म के प्रति निष्ठा व राष्ट्र के प्रति समर्पण हो, तो गौरवशाली भारत निर्माण का स्वप्न दूर नहीं।
धर्म प्राणों से भी प्यारा है  धर्म प्राणों से भी प्यारा है Reviewed by naresh on Friday, January 18, 2013 Rating: 5

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